शनिवार, 5 मई 2012
muni pulak sagar महाराज से विशेष बातचीत
मुनिश्री पुलकसागरजी महाराज से विशेष बातचीत
संत दिशा बताते हैं चलना समाज को-मुनि पुलक सागर
मुनिश्री पुलक सागरजी का कहना है कि संत का काम समाज को सही दिशा दिखाना है, लेकिन उस दिशा पर, उस राह पर आगे बढ़ने का काम तो समाज को ही करना होता है। संत यानी वो जिसे समय से पहले ज्ञान का आभास हो जाए, उसके दर्शन हो जाएं। संत न पैदा होते हैं, न बनाए जाते हैं, संत तो बन जाते हैं। संतई मन की एक बहुत विशिष्ट और उच्च अवस्था है। आज का युवा उत्थान और पतन के दोराहे पर खड़ा है। समय रहते यदि हमने उन्हें संस्कार न दिए तो हम उनके भविष्य के हत्यारे तो होंगे ही, साथ में अपना बुढ़ापा भी बिगाड़ लेंगे। ये संतों जिना ही माता-पिता और बुजुर्गों का भी दायित्व है कि वे युवाओं को संस्कारों से नवाजें और उन्हें इस दोराहे से आगे सही दिशा में बढ़ने का रास्ता सुझाएँ। इसके लिए जरूरी है कि बुजुर्गों में भी संस्कार हो। बात संस्कारों की हो या ज्ञान की, पूरी दुनिया में भारत का कोई मुकाबला नहीं है। सारी दुनिया में भारत वह सोने की चिड़िया है, जिसका सांस्कृतिक व आदर्शमय वैभव देखकर आज भी विदेशी ललचते हैं।
प्रश्न: महाराजश्री संत समुदाय चाहे तो समाज की और देश की सूरत बदल सकता है, क्या यह सही है?
मुनिश्री: संत यदि कुछ न बोले तो यह भी ठीक नहीं और कोई संत बोले और समाज की दिशा बदलने की बात कहे तो यह भी सही नहीं, क्योंकि जब तक सामने वाला खुद बदलना नहीं चाहे तब तक भगवान भी उसे बदल नहीं सकते। फिर भी मैं कहता सकता हूँ कि आज हमारे देश में जितनी भी इन्सानियत व नैतिकता मौजूद है, वह संतों की बदौलत है, वरना आप पड़ोसी देशों को देख सकते हैं, जहाँ संत नहीं। वहाँ न मानवीयता है, न रिश्ते होते हैं। संत समाज को केवल सही दिशा का ज्ञान करा सकते हैं, इसलिए सभी संत समाज को और लोगों को सही और गलत में फर्क समझाकर अच्छाई की राह दिखाने का काम कर सकते हैं। उसे मानना न मानना और उस पर चलना सामने वाले पर निर्भर करता है।
प्रश्न: युवा पीढ़ी के साथ संस्कार और संगति की दिक्कत है। यदि सकूल-कॉलेजों में संतश्री के प्रवचन कराए जाएँ तो युवा पीढ़ी को भटकने से रोका जा सकता है?
मुनिश्री: स्कूल-कॉलेजों में प्रवचन देने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन आज के बच्चे किसके साथ उठते-बैठते हैं, उनका फैमिली बैकग्राउंड क्या है और वो किस माहौल में रह रहे हैं, इस बात का असर उन पर ज्यादा पड़ता है। बुनियादी बात यह है कि आज शिक्षा जीवन निर्वाह का सबब बन गई है। पढ़ाने वाला और पढ़ने वाले इसे आजीविका की तरह लेने लगे हैं, जबकि शिक्षा जीवन निर्वाह के जरिए से ज्यादा जीवन निर्माण की कला होनी चाहिए। संत बच्चों को प्रवचन देंगे तो उसका असर उन पर पड़ेगा पर वो तात्कालिक ज्यादा होगा। लम्बे समय तक असर के लिए माता-पिता को ध्यान रखनी चाहिए, ताकि युवा पीढ़ी भटके नहीं।
प्रश्न: ऐसा क्यों है कि सुधार तो सभी चाहते हैं, लेकिन कामना यही करते हैं शुरुआत दूसरे करें मसलन लोग यह भी कहते मिलते हैं कि संत तो पैदा हो, मगर पड़ोसी के यहाँ?
मुनिश्री: संत दो तरह के होते हैं। एक तो वह जो दुःखों से बनता है और दूसरा वह जो जीते जी मुक्ति के सुत्रा पाने के लिए साधना में रत हो जाता है। उसे दुःख से दुःखी और सुख से सुखी नहीं होना चाहिए। उसे तो हमेशा हँसते रहना आता है। असल में अधिक सुख की चाहत ही दुःख का कारण बनती है। फिर संत न पैदा होते हैं, न बनाए जा सकते हैं।
संत वह होता है, जिसे समय से पहले ही ज्ञान प्राप्त हो जाता है। संत ज्ञानेश्वर को नौ साल की उम्र में ही संत कुंदकुंद को आठ वर्ष की अवस्था में ही ब्रह्मज्ञान का आभास हो गया था। इसी तरह संत कुंदकुंद को आठ वर्ष की अवस्था में ही सत्य का पता चल गया था। यों संत बनना हरेक के लिए जरूरी नहीं है। आप अपने मन को संत के समान बना लें तो इतना भी बहुत काफी है।
प्रश्न ः युवा देश के कर्णधार और भविष्य हैं, उनके उत्थान और मार्गदर्शन के लिए क्या होना चाहिए?
मुनिश्री: वास्तव में अब देश को युवा पीढ़ी ही देश का भविष्य तय करेगी। समस्या ये है कि आज का युवा उत्थान और पतन के दोराहे पर खड़ा है। उसके पास चलने की ऊर्जा और साहस दोनों है, मगर दिशादृष्टि नहीं है। यदि हमने यानी माता-पिता, गुरु और संत समुदाय ने उन्हें सही रास्ते का पता नहीं दिया तो उनका और देश का भविष्य संकटग्रस्त होगा।
प्रश्न: आजकल संतों की जमातभी होने लगी, क्या यह उचित है?
मुनिश्री: संतों की कोई जमात नहीं होती और जमात से हटकर चलने वाले और ऊँची सोच रखने वाले को ही संत कहते हैं। यदि उसे जमात के ही बंधन में रहना हो तो वो माता-पिता क्या बुरे हैं, जिन्होंने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया? सो संत हर जमात से परे होते हैं और इलाका भीड़ भरा हो या सुनसान संतहर परिस्थिति में हमेशा अकेला
होता है।
प्रश्न: अपने अनुयायियों को आपका कोई सन्देश?
मुनिश्री: संत कभी अपने अनुयायी या फॉलोअर नहीं बनाता। लोग उनके अनुयायी बन जाते हैं, फिर भी मैं यही कहना चाहता हूँ कि मेरे अनुयायी बनने से तुम्हारा भला नहीं होगा, क्योंकि मैं तुम्हारे किसी काम नहीं आऊँगा। हाँ, मेरे विचारों के अनुकूल बन जाओ, मेरे विचार तुम्हारे बहुत काम आएँगे। एक व्यक्ति अपने स्व का कल्याण कर लें यही बहुत है। खुद का कल्याण सबसे बड़ा जतन है और इसके बाद किसी दूसरे की कल्याण की चिन्ता की बात आती है। यूं यह शहर तो संतों का बहुत सम्मान करने वाला शहर है। दया, कृपा जैसी कोई चीज मिल भी जाती है, लेकिन वो सुकून नहीं देती है।
प्रश्न: छोटे बच्चों को शिक्षा और संस्कार देना अति आवश्यक है?
मुनिश्री: बच्चों को संस्कारयुक्त बनाया जाना चाहिए, लेकिन आजकल हम बच्चों पर संस्कार थोपने का काम कर रहे हैं। मेरा मानना है कि बच्चों के बजाए पहले बुजुर्गों में संस्कार होना चाहिए। बुजुर्ग यदि संस्कारों को पालेंगे और उस अनुरूप आचरण करेंगे तो वो अपने आप बच्चों में आएँगे। अभी संस्कार देने के नाम पर बच्चों से उनका बचपन छीना जा रहा है। वास्तव में देखा जाए तो बच्चों का बचपन कृष्ण जैसा होना चाहिए। फिर जवान राम जैसी और बुढ़ापा महावीर जैसा होना चाहिए। बचपन और जवानी के लिए युवाओं को सही मार्गदर्शन देना जरूरी है वरना बच्चे और युवा अपने उद्देश्य से भटक जाएँगे।
प्रश्न: क्या कभी किसी बात से आप विचलित हुए हैं, ऐसा कोई संस्मरण बताएं।
मुनिश्री: ऐसा तो कभी हुआ नहीं, फिर भी किसी को वेदना होती है तो मुझे कष्ट होता है और मुझसे किसी को पीड़ा पहुँचती है तो मैं विचलित हो जाता हूँ।
प्रश्न: आप तो भारतवर्ष में भ्रमण करते रहते हैं, दूसरे देशों की अपेक्षा हम कहाँ हैं?
मुनिश्री: बात संस्कार की हो, आदर्शों की हो, ज्ञान की हो या सभ्यता की, दुनिया में भारत का कोई मुकाबला नहीं है। भारत बहुत का कोई मुकाबला नहीं है। भारत बहुत संवेदनशील देश है। अभी जब मुम्बई, जयपुर जैसे शहरों में बम ब्लास्ट हुए तो सैकड़ों लोग सड़कों पर कराहते पाए गए, तब हम इतने संवेदनशील हो गए कि हमने यह नहीं देखा कि हिन्दू करहा रहा है या मुसलमान। हम एक दूसरे के जख्मों पर मरहम लगाने लगे। हम हमेशा दुश्मी रखने वाले पड़ोसी देश के साथ भी शान्ति की बात कर रहे हैं। बात चाहे भौतिकता की खोज हो या किसी भी तरह की रिसर्च की, भारत हर मामले में अग्रणी है।
प्रश्न: जिस तरह से अलग-अलग धर्म के लोग हमारे यहाँ अपने अलग-अलग त्योहार मानते हैं, उसी तरह से यदि हम सब 15 अगस्त और 26 जनवरी मनाएँ तो कैसा रहेगा?
मुनिश्री: इससे अच्छी कोई बात नहीं हो सकती है। अगर सभी धर्मों के लोग मजहब से ऊपर उठकर 15 अगस्त और 26 जनवरी देशभर में धूमधाम से मनाएँ तो इसमें क्या बुराई है। मैं 15 अगस्त और 26 जनवरी पर्व मनाने के लिए अपने प्रवचन में विशेष आग्रह ही नहीं करता, बल्कि जहाँ भी रहता हूँ अतिउत्साह से राष्ट्रीय पर्वों की महोत्सव के रूप में मनाता हूँ। यदि सभी धर्मों के संत एकजुट हो जाएँ और राष्ट्रीय पर्व मनाने का आह्नान करें तो बदलाव आ सकता है, लेकिन हर संत अपनी मजहबी दीवारों से घिरा हुआ है। आज वेलेंटाइन-डे भी मनाया जा रहा है और राष्ट्रीय पर्व की तरफ ध्यान कम है।
प्रश्न: क्या कारण है कि जैन समुदाय में दूसरे समाज के लोग भी संत होते हैं और दिगम्बर सम्प्रदाय के संत कम होते हैं?
मुनिश्री: ऐसा नहीं है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय में फिलहाल 1200 संत हैं। इसमें से केवल चार-पांच ही बाहरी हैं, शेष सभी यहीं के हैं। कठोर साधना और तपस्या के तरीके की तुलना नहीं की जा सकती। साधना से ही साधन और शान्ति नहीं मिलती, बल्कि मृत्यु का अनुभव जीते जी होना चाहिए। यही साधना है।
प्रश्न: इलेक्ट्रॉनिक्स संचार साधनों के सम्बन्ध में आप कहेंगे?
मुनिश्री: संचार के माध्यमों की ही बात है कि अब पूरे विश्व में कोई फर्क नहीं रह गया है। फर्क बस इतना है कि इन संचार साधनों का दुरुपयोग रुकना चाहिए। आज हमारे संचार साधनों और संस्कृति पर पाश्चात्य देशों का प्रभाव पड़ रहा है, जबकि हमें हमारी संस्कृति की ओर ध्यान देना चाहिए।
प्रश्न: क्या आपके मन में भी मन्दिर या धर्मशाला आदि बनाने की बात कभी आई है?
मुनिश्री: नहीं। मैं तो केवल मानवमात्रा के लिए कुछ करना चाहता हूँ और उसके लिए पुष्पगिरि में एक वात्सल्यधाम की स्थापना की गई है, जिसमें तीन वर्गों के बुजुर्गों को रखा जा रहा है। एक तो वे जिनकी कोई औलाद नहीं है, दूसरे वे जिनकी औलाद तो है, परन्तु वो उन्हें साथ नहीं रखना चाहती और तीसरे वे जिनकी औलादें विदेशों में हैं और वे यहाँ अकेले रहते हैं। इसी तरह विधवा, परित्यक्त महिलाएँ भी हैं और बच्चों को भी रखा गया है और सभी एक साथ रह रहे हैं। हमने अनाथाश्रम नाम रखने के बजाए वात्सल्यधाम नाम रखा है। फिलहाल यहाँ 40बच्चे एवं 21 बुजुर्ग निवास कर रहे हैं। इनमें से ज्यादातर जैन समुदाय के हैं, लेकिन इसमें जाति का कोई बंधन नहीं है। कभी-कभी मुझे लगता है कि लोग करुणा का भी दुरुपयोग करते हैं। हमारी करुणा वो अपनी स्वार्थसिद्धि में लगाने लगते हैं तो हमारा मिशन कमजोर होने लगता है।
प्रश्न: मीडिया देश का चौथा स्तम्भ है, इसके विषय में आप क्या कहेंगे?
मुनिश्री: मीडिया के बगैर दुनिया आज भी अधूरी है, क्योंकि लाखों लोगों तक अपनी आवाज और अपनी बात मीडिया के माध्यम से ही पहुँचती है। दशरथ और राम के वनवास के सम्बन्ध में भी अगर तुलसीदासजी रामायण नहीं लिखते तो शायद आज रामायण इतनी प्रसिद्ध नहीं होती, दशरथ के वो राम जो कर छोड़क वन में गए, वे फिर से रामायण के माध्यम से घर-घर वापस नहीं पहुँच पाते। तुलसीदास की तरह ही आज मीडिया की भूमिका है।
प्रश्न: यदि आप संत नहीं होते, तो कवि होते?
मुनिश्री: (हंसकर) मैं संत हूँ, इसलिए ही कवि हूँ, क्योंकि मेरी मान्यता है कि जो संत होता है वो कवि जरूर होता है, पर जो कवि होता है, वह संत हो यह जरूरी नहीं। कुंदकुंद, तुलसी, मीरा, सूर ये सब संत थे और कवि भी थे।
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