रविवार, 24 जून 2012

janm jra mratu hai- muni pulaksagar


जन्म जरा मृत्यु बिमारी है -मुनि पुलकसागर
14 जून 2012 वे कर्म वर्गणाएॅ जो राग द्वेश के निमित्त से आत्मप्रदेषो के साथ मिलकर कर्म रूप परिणत होकर जीव के आत्म स्वभाव को ढक देती है। उन कार्माण वर्गणाओं को कर्म कहते है। उक्त पवित्र विचार राश्टसंत मुनिश्री पुलकसागर जी महाराज ने आज गुरूवार को न्यू रोहतक रोड मे नवहिंद पब्लिक स्कूल ऑडिटोरियम मे आयोजित मां जिनवाणी षिक्षण षिविर के पांचवे दिवस पर षिविरार्थियो को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। मुनिश्री ने आगे षिविरार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि कर्म आठ प्रकार के होते है,ज्ञानावरणी,दर्षनावरणी,वेदनीय,मोहनीय,आयु,नाम,गोत्र और अंतराय। मुनिश्री ने कहा कि जिस कर्म के उदय से आत्मा के ज्ञान के गुण ढंक जाते है उन्हें ज्ञानावरणी कर्म कहते है। किसी ज्ञान के ज्ञान मे विघ्न डालने से पुस्तक फाडने से ,छिपा देने से ज्ञान का गर्व करने से जिनवाण मे संषय करने से ज्ञानावररणी कर्म का बंध होता है। जो कर्म आत्मा के दर्षन गुण को ढंकता है अर्थात प्रकट होने नहीं देता है उसे दर्षनावरणी कर्म कहते है,जिन दर्षन मे विघ्न डालना, किसी की आंख फोड देना, मुनियों को देखकर घृणा आदि करने से दर्षनावरणी के र्म का बंध होता है। मुनिश्री ने कहा कि जो कर्म हमे सुख दुख का वेदन करता है अर्थात अनुभव कराता है उसे वेदननीय कर्म कहते है। अपने व दूसरो के विशय में दुख करना,षोक करना रोग,पषुवध आदि असाता वेदनीय कर्म बंध के कारण है एवं दया करना,दान देना, संयम पालना, व्रत पालना, आदि साता वेदनीय कर्म के बंध के कारण है। मुनिश्री ने मोहनीय कर्म की परिभाशा देते हुए कहा कि जिस कर्म के उदय से आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात होता है। सच्चे देव षास्त्र गुरू और धर्म मे दोश लगाना मिथ्या देव षास्त्र गुरू की प्रषंसा करना, क्रोधादि कशाय करना, राग द्वेश करना मोहनीय कर्म के बंध का कारण है। मुनिश्री ने कहा कि जिस कर्म के उदय से जीव को चारो गतियों में से किसी एक गति में निष्चित समय तक रहना पडता है,उसे आयु कर्म कहते है। बहुत हिंसा करना, बहुत आरंभ करना,परिग्रह रखना,छल कपट करना, अषुभ आयु कर्म के बंध के कारण है, और व्रत पालन करना, षांतिपूर्वक दुख सहना आदि षुभ आयु कर्म के बंध के कारण है। नाम कर्म की को षिविरार्थियो को समझाते हुए कहा कि नाम कर्म के उदय से षरीर की प्राप्ती होती है। मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा को देखकर खुष होना, धोखा नहीं करना, षुभ नाम कर्म का कारण है। एवं त्रियोग कुटिल रखना, दूसरो को देखकर हंसना, उसी की नकल करना आदि अषुभ नामकर्म का कारण है। मुनिश्री ने गोत्र कर्म को समझाते हुए कहा कि गोत्र कर्म के उदय से प्राणी उच्च नीच कुल मे जन्म लेता है, उसे गोत्र कर्म कहते है। अपने गुण और दूसरों के अवगुण प्रकट करना, अश्ट मद करना, आदि नीच गोत्र का कारण है। एवं दूसरो के गुण और अपने अवगुण प्रकट करना अश्ट मद नहीं करना उच्च गोत्र कर्म का कारण है। मुनिश्री ने अंतिम कर्म अंतराय कर्म को समझाते हुए कहा कि जो कर्म दान,लाभ भोग,उपभोग, और षक्ति में विघ्न डालता है उसे अंतराय कर्म कहते है। मुनिश्री ने कहा कि दान देने से रोक देना, आश्रितों को धर्म साधन नहीं देना, किसी की मांगी वस्तु को नहीं देना, आदि अंतराय कर्म के कारण है।

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