बुधवार, 13 जून 2012
janam jra mratu bimari hai- muni pulaksagar
जन्म जरा मृत्यु बिमारी है -मुनि पुलकसागर
14 जून 2012 वे कर्म वर्गणाएॅ जो राग द्वेश के निमित्त से आत्मप्रदेशो के साथ मिलकर कर्म रूप परिणत होकर जीव के आत्म स्वभाव को ढक देती है। उन कार्माण वर्गणाओं को कर्म कहते है। उक्त पवित्र विचार राष्टसंत मुनिश्री पुलकसागर जी महाराज ने आज गुरूवार को न्यू रोहतक रोड मे नवहिंद पब्लिक स्कूल ऑडिटोरियम मे आयोजित मां जिनवाणी शिक्षण षिविर के पांचवे दिवस पर शिविरार्थियो को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
मुनिश्री ने आगे शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए कहा कि कर्म आठ प्रकार के होते है,ज्ञानावरणी,दर्शनावरणी,वेदनीय,मोहनीय,आयु,नाम,गोत्र और अंतराय। मुनिश्री ने कहा कि जिस कर्म के उदय से आत्मा के ज्ञान के गुण ढंक जाते है उन्हें ज्ञानावरणी कर्म कहते है। किसी ज्ञान के ज्ञान मे विघ्न डालने से पुस्तक फाडने से ,छिपा देने से ज्ञान का गर्व करने से जिनवाणी मे संशय करने से ज्ञानावररणी कर्म का बंध होता है।
जो कर्म आत्मा के दर्शन गुण को ढंकता है अर्थात प्रकट होने नहीं देता है उसे दर्शनावरणी कर्म कहते है,जिन दर्शन मे विघ्न डालना, किसी की आंख फोड देना, मुनियों को देखकर घृणा आदि करने से दर्शनावरणी के कर्म का बंध होता है।
मुनिश्री ने कहा कि जो कर्म हमे सुख दुख का वेदन करता है अर्थात अनुभव कराता है उसे वेदननीय कर्म कहते है। अपने व दूसरो के विषय में दुख करना,शोक करना रोग,पशुवध आदि असाता वेदनीय कर्म बंध के कारण है एवं दया करना,दान देना, संयम पालना, व्रत पालना, आदि साता वेदनीय कर्म के बंध के कारण है।
मुनिश्री ने मोहनीय कर्म की परिभाषा देते हुए कहा कि जिस कर्म के उदय से आत्मा के सम्यक्त्व और चारित्र गुण का घात होता है। सच्चे देव शास्त्र गुरू और धर्म मे दोष लगाना मिथ्या देव शास्त्र गुरू की प्रशंसा करना, क्रोधादि कषाय करना, राग द्वेष करना मोहनीय कर्म के बंध का कारण है।
मुनिश्री ने कहा कि जिस कर्म के उदय से जीव को चारो गतियों में से किसी एक गति में निश्चित समय तक रहना पडता है,उसे आयु कर्म कहते है। बहुत हिंसा करना, बहुत आरंभ करना,परिग्रह रखना,छल कपट करना, अशुभ आयु कर्म के बंध के कारण है, और व्रत पालन करना, शांतिपूर्वक दुख सहना आदि शुभ आयु कर्म के बंध के कारण है।
नाम कर्म की को शिविरार्थियो को समझाते हुए कहा कि नाम कर्म के उदय से शरीर की प्राप्ती होती है। मन, वचन, काय को सरल रखना, धर्मात्मा को देखकर खुश होना, धोखा नहीं करना, शुभ नाम कर्म का कारण है। एवं त्रियोग कुटिल रखना, दूसरो को देखकर हंसना, उसी की नकल करना आदि अशुभ नामकर्म का कारण है।
मुनिश्री ने गोत्र कर्म को समझाते हुए कहा कि गोत्र कर्म के उदय से प्राणी उच्च नीच कुल मे जन्म लेता है, उसे गोत्र कर्म कहते है। अपने गुण और दूसरों के अवगुण प्रकट करना, अष्ट मद करना, आदि नीच गोत्र का कारण है। एवं दूसरो के गुण और अपने अवगुण प्रकट करना अष्ट मद नहीं करना उच्च गोत्र कर्म का कारण है।
मुनिश्री ने अंतिम कर्म अंतराय कर्म को समझाते हुए कहा कि जो कर्म दान,लाभ भोग,उपभोग, और शक्ति में विघ्न डालता है उसे अंतराय कर्म कहते है। मुनिश्री ने कहा कि दान देने से रोक देना, आश्रितों को धर्म साधन नहीं देना, किसी की मांगी वस्तु को नहीं देना, आदि अंतराय कर्म के कारण है।
विनय कुमार जैन
मंगलवार, 12 जून 2012
pooja sadev adhik guno walo ki hoti hai -muni pulaksagar
पूजा सदैव अधिक गुणों वालो की होती है- मुनि पुलकसागर
12 जून 2012 दिल्ली, कभी अपने आप से प्रश्न करना की मै कौन हॅू आप चमडी हो, खून हो, मांस हो, हड्डी तुम हो। अगर इनमे से तुम कुछ हो तो इनके क्षतिग्रस्त हो जाने पर हम मरते नही है इसलिए इनमे से तुम कुछ भी नहीं हो। उक्त प्रेरक विचार राष्टसंत मुनिश्री पुलकसागर जी महाराज ने मंगलवार को न्यू रोहतक रोड स्थित नवहिंद पब्लिक स्कूल के ऑडिटोरियम मे आयोजित मां जिनवाणी शिक्षण शिविर के तृतीय दिवस पर शिविरार्थियों को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
उन्होंने शिविरार्थियो को संबोधित करते हुए आगे कहा कि अपना हाथ किसी को क्षति पहुंचा सकता है और करूणा, आशीर्वाद भी बन जाता है, शरीर भी बोलता है केवल जुवान नही बोलती हैं। यही हाथ शराब भी ले सकता है और गंधोदक भी ले सकता है। हमारा हाथ क्या ग्रहण करेगा उसको जो यह आदेश देता है वह तुम हो। जो आंखे देख रही है वह तुम नही हो अपितु जो उन आंखो मे देखने की शक्ति प्रदान कर रहा है वह तुम हो।
मुनिश्री ने आगे शिविरार्थियो को संबोधित करते हुए कहा कि याद रखना मुर्दे भोजन ग्रहण नहीं करते केवल जीवित इंसान ही भोजन ग्रहण कर सकते है। दुनिया मे सारा खेल शक्तियों का है और मानव शरीर मे सारी खेल आत्मा का है। शक्तिविहीन कुछ भी कार्य करने मे असमर्थ होता है उसी प्रकार जब आत्मा हमारे शरीर से निकल जाती है तो शरीर भी कुछ काम का नही होता है।
मुनिश्री ने कहा कि संसारी भी मै हॅू, मोक्ष जाने वाला भी मै हॅू, मै ही नर्क गति, स्वर्ग गति को प्राप्त करता हॅू। मै ही कर्मो का बंध करने वाला और नाश करने वाला हॅू। भीतर जो शक्ति है पावर है वह आत्मा है। आत्मा अलग से कोई वस्तु नहीं है भीतर की उर्जा की आत्मा है। मै निज मे रहने वाला हूॅ पर से मेरा संबंध नहीं।
मुनिश्री ने आत्मा के अस्तित्व को उदाहरण के द्वारा समझाते हुए कहा कि वायर के अंदर पावर है जिससे आपके टी व्ही पंखे कूलर चल रहे है लेकिन वह पावर दिखता नहीं है। दिखता नही है फिर भी होता है, वैसी ही हमारी आत्मा दिखती नहीं है लेकिन होती है, आत्मा से ही शरीर से उर्जा मिलती है, आत्मा के द्वारा ही हमे सुख, दुख, की अनुभूति होती है।
मुनिश्री ने कहा कि अधिक गुण वाला कम गुण वाले को अपने जैसे बना लेता है। जिस प्रकार लोहे के टुकडे को चुम्बक बनाने के लिए उसको चुम्बक के पास रखना पडता है, जब तक लोहे का टुकडा चुम्बक की शरण मे नहीं आएगा तब तक वह चुम्बक नही बन पाएगा। इसी प्रकार जब तक तुम भगवान के निकट नहीं आओगे तो तुम भी भगवान नहीं बन पाओगे। दूर रहोगे तो उनकी पावर तुम तक नहीं आ पाएगी। मुनिश्री ने कहा कि तुम जैन तो लेकिन जैनी बनने के लिए तुम्हें भगवान जिनेन्द्र के पास जाना पडेगा।
गुरुवार, 7 जून 2012
adhmari samaj poori tarah se mar jaye- muni pulaksagar
बुधवार, 6 जून 2012
jeevan me moska pane ka lakshya banao- muni pulak sagar
जीवन मे मोक्ष पाने का लक्ष्य बनाओं-मुनि पुलकसागर
7 जून से 10 जून तक बहेगी ज्ञान गंगा न्यू रोहतक रोड मे
जून 6 मई 2012 रात को भी दिन निकल सकता है,दिन को भी रात हो सकती है,लोग कहते है,समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता लेकिन मेरी श्रद्धा कहती है कि गुरू की कृपा हो जाए तो समय से पहले और भाग्य से अधिक भी मिल सकता है। उक्त विचार राष्टसंत मुनिश्री पुलकसागर जी महाराज ने आज छप्परवाला दिगम्बर जैन मंदिर के हॉल मे श्रावकों को संबोधित करते हुए व्यक्त किए।
गुरू के महत्व को प्रतिपादित करते हुए मुनिश्री ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए आगे कहा कि गुरू की कृपा से भौतिक सुख-संपदा तो छोड़ो मोक्ष लक्ष्मी को भी प्राप्त किया जा सकता है।
मुनिश्री ने कहा कि भगवान की मूर्ति मौन है,शास्त्र मौन है आप जैसा चाहे अर्थ लगा सकते हो पर गुरू मौन नहीं होते है वे मुखर होते है जो तुम्हारे अहंकार पर चोट करते है। याद रखना साधू वही होता है जो तुम्हारे अहंकार पर चोट करे। साधू वह नहीं होता जो तुम्हारे अहंकार की पुश्टि करे। याद रखना मंदिर की मूर्ति कुछ समय पहले तक सड़क का पत्थर हुआ करता है लेकिन जब उस पर किसी शिल्पी की नजर पडती है तो मूर्ति का रूप ले लेता है लेकिन कोई सद्गुरू ही होता है जो उसमे भगवत्ता को प्रकट कर दिया करता है।
मुनिश्री ने जीवन मे लक्ष्य बनाने की सीख देते हुए कहा कि हर व्यक्ति के जीवन मे एक न एक लक्ष्य अवश्य होना चाहिए,बिना लक्ष्य के जीवन मे उंचाईयॉ हासिल नहीं हो सकती है। यहां पर जितने भी लोग बैठे है सबका कोई ना कोई लक्ष्य अवश्य होगा। विद्यार्थीयों का लक्ष्य परीक्षा मे सफलता,व्यापारी का पैसा कमाना लक्ष्य हो सकता है लेकिन मै एक बात आपसे बड़ी विन्रमता के साथ कहना चाहता हॅू कि यह लक्ष्य तो चिता के साथ जलकर भस्म हो जाएगे,अगर जीवन मे लक्ष्य बनाना ही है तो निर्वाण को अपना लक्ष्य बनाओ, मोक्ष को अपना लक्ष्य बनाओ।
संघस्थ प्रवक्ता विनय कुमार जैन ने बताया कि मुनिश्री पुलकसागर जी महाराज के सानिध्य मे न्यू रोहतक रोड मे 7 जून से 9 जून तक ज्ञान गंगा प्रवचन का आयोजन होगा तथा 10 जून से 17 जून मां जिनवाणी शिक्षण षिविर के तृतीय भाग का आयोजन किया जाएगा। मां जिनवाणी शिक्षण शिविर के फार्म श्री दिगम्बर जैन मंदिर न्यू रोहतक रोड मे प्राप्त किये जा सकते है।
रविवार, 3 जून 2012
santhi man ki sabse badi dolat- muni pulaksagar
षांति मन की सबसे बडी संपदा-मुनि पुलकसागर
मुनिश्री 3 जून तक त्रिनगर मे
दिल्ली 3 जून 2012 मन की षांति संपदा सबसे बडी संपदा और अषांति सबसे बडी दरिद्रता है, षांति जीवन में है जीवन स्वर्ग नहीं तो नर्क के समान होता है, जीवन मे अगर षांति है तो अभावो मे आनंद बरसता है, यदि अषांति हुई तो साधन होने के बाद भी जीवन मे आनंद नही होता है।
उक्त विचार राश्ट्रसंत मुनिश्री पुलकसागर जी महाराज ने त्रिनगर स्थित जैन धर्मषाला के हॉल मे रविवार को श्रावको को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। इससे पूर्व षनिवार की षाम को षास्त्री नगर मे ष्वेताम्बर साध्वियो मे संसघ जैन धर्मषाला मे पधारकर मुनिश्री से आषीर्वाद प्राप्त कर तत्व चर्चा की।
मुनिश्री ने धर्मसभा को संबोधित करते हुए आगे कहा कि जहां षांति होती है वही सच्चा धर्म होता है और जहां अषांति होती है वही अधर्म होता है। यदि आपके पास सब कुछ है और षांति नही है तो जीवन व्यर्थ है।
मुनिश्री ने षांति को षीतलता का सरोवर बताते हुए कहा कि षांति तो षीतलता का वेा सरोवर है जिसके तट पर हर राहगीर बैठकर षीतलता प्राप्त करना चाहता है और अषंाति पेड के ठूंठ की तरह है जिस पर न तो पुश्प है और न हरी पत्तियॉ इसलिए कोई भी उसके पास जाना नही चाहता।
मुनिश्री ने कहा कि सरोवर मे तपन के बाद सूख जाता है तो उसमे दरारे पड जाती है मन भी हमारा सरोवर के समान है अगर इसमे दरारे पड गई तो परिवार बिखर जाएगा। याद रखना सावन आने पर सरोवर की दरारें तो भर जाती है लेकिन मन मे आई दरारें कभी नहीं भरती।
विनय कुमार जैन
9910938969
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