सोमवार, 23 अप्रैल 2012

एक वार्ता सांध्य महालक्ष्मी से

एक वार्ता सांध्य महालक्ष्मी से
प्रष्नः- एक मंच पर दो संत नहीं बैठ पाते । दोशी कौन समाज या श्रमण? मुनिश्री- न समाज ना ही श्रमण दोशी है मन की संकीर्णता। जरूरी नहीं कि मंच पर एक होने से मन से भी एक हो जाये। हां यह जरूरी है मन से एक हो जाये तो मंच पर बैठे या न बैठे कोई फर्क नहीं पड़ता। मंच की नहीं मन की एकता जरूरी हैं। प्रष्नः-भगवान को मानने वालो की संख्या लगातार बढ़ रही है पर भगवान को मानने वालो की संख्या लगातार घट रही है,ऐसा क्यों? मुनिश्री- कहीं न कहीं धर्मात्माओं की इसमे भूल रही है उन्होंने लोगो को भगवान से तो परिचय कराया पर भगवत्ता से अपरिचित रखा है,काष भगवत्ता का सम्यक परिचय करा देते तो आज भगवान को मानने वालो की संख्या बढ़ गई होती। प्रष्नः-सरल हो जाना धर्म है पर इसका मार्ग कठिन है? मुनिश्री-यह नियम हैं कि कठिन मार्ग से ही सरल मार्ग निकलता है,लॉग रोड़ से ही षॅार्ट कट निकलता है। प्रष्न- भगवान के पास हर कोई कुछ छोड़ने नहीं,मांगने आता है, और मांगता भी वही है, जो भगवान ने छोड़ दिया है, जो भगवान ने पाया वो क्यो नहीं मांग पाते? मुनिश्री- क्षुद्र से जिनका परिचय है वे क्षुद्रता के अलावा क्या मांग सकते है। विराटता से जिसका परिचय है वह विराटता की अभिलाशा रखता है और जो क्षुद्र और विराटता के उपर उठ जाता है वह भगवान बन जाता है,उसे मांगने की जरूरत नहीं पड़ती है। प्रष्न-दूसरे के दुख मे सुख दूसरे के सुख मे दुख अनुभव क्यो महसूस करते है? मुनिश्री-भीतर का खालीपन जब हम नहीं भर पाते तब ईर्श्या पैदा होती है,और यही सुख वर्दास्त नहीं कर पाती। प्रष्न- ऐसा कहा जाता है, कि दिल्ली की अपेक्षा म.प्र. राजस्थान के लोगो की भक्ति ज्यादा अनुकरणीय है, भक्त भी ज्यादा है। पर क्षेत्रपाल के अनुपात में छोटी दिल्ली में भी मंदिर ज्यादा है और संतो का आगमन भी ज्यादा रहता है,यह अतिष्योक्ति क्यों? मुनिश्री-भक्ति मे अनुपात नहीं देखा जाता भक्ति तो भक्ति है, फिर भी क्षेत्र, वातावरण और माहौल का भी विचारों पर फर्क पड़ता है। यह तो मानना ही पड़ेगा कि बहिरंग परिस्थितियॉ ना चाहकर भी अंतरंग को प्रभावित करती ही है।

1 टिप्पणी: